मातृ पितृ देवो भवा

पिता' शब्द संतान के लिए सुरक्षा कवच है। पिता एक छत है, जिसके आश्रय में संतान विपत्ति के झंझावातों से स्वयं को सुरक्षित पाता है।  पिता संतान के पालन - पोषण और संरक्षण का पर्याय है।  पिता शिशु के लिए उल्लास है।  जवानों के लिए अनिश्चितक और पथ प्रदर्शक है और वयस्कों के लिए अनंत आशीर्वाद है।  पिता के वृद्ध होने या महाप्रस्थान के समय ही संतान उनका सत्ता - महत्ता का ज्ञान कर पाती है।  इस संसार मेहर बह व्यक्ति सौभाग्यशाली है जिसने अपने पिता का सानिध्य पाया है और उनकी सेवा पालन करने में सफल रहे हैं।  कोई भी व्यक्ति अपने पिता की प्रसन्नता का कारण बनकर जीवन सफल कर सकता है। लोक जीवन में पिता - पुत्र के संबंध सदा से ही मधुर रहे हैं। हालाँकि पिता ने अपनी संतान से मुँह नहीं मोड़ा।  वह सदैव अपनी संतान की खुशी - शांति की कामना करता रहा है, संतान भले ही अपने दासों से।  मुंह मोड़कर उसे अकेला छोड़ दे।
पिता के साथ - साथ माँ भी इकलौती ऐसी शख्स है जिसका प्यार निस्वार्थ होता है।  उसके त्याग की कोई तुलना नहीं।  वह हमारे लिए सब कुछ होता है।  वह हमारा चेहरा व मन पढ़ लेती है।  बिना बताए जान लेती है हमारे दिलों के राज।  हमारी सफलता उसे खुशी देती है और उदास होने पर हम पर पूरा प्यार लुटता है।  हमारी बीमार पड़ने पर अपनी भूख प्यास भूल जाती है।  बचपन में जब चोट लगती है।  माँ हल्की सी फैंक मारकर ठीक कर देती थी।  किसी की माँ भले ही पढ़ी लिखी न हो फिर भी वह ऊँची सोच रखती है।  माँ को देखकर समझ में आता है कि प्रेम अंधा क्यों होता है?  क्योंकि हमें जन्म देने से पहले ही माँ ने हमें प्रेम करना शुरू कर दिया था।  माँ वो महिला है जो समय के साथ बदलती है, समय को बखूबी थाम भी लेती है। अपने झुर्रियों से भरे हाथों से जब आशीष धड़कती है तो सफलता के नए द्वार खुल जाते हैं।  हम घर से निकलकर अनेकों उपलब्धियाँ अपने नाम कर डालते हैं।  दूर रहकर भी वह हमारे अनुभवों और यादों में समाई रहती है।  इसी तरह हम हर पल अपने माता - पिता का ही रिफम्ब बनने की कोशिश करते हैं।  जीवन में इन रिश्तों की अहमियत समझने से ही हमारे जीवन में प्रेम, खुशी, शांति।  की वाटिका सदैव हरी - भरी रह पाएगी।

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